14/05/17 मधुबन "अव्यक्त- बापदादा” ओम् शान्ति 29-03-82 || HINDI || (OM SHANTI)

“सच्चे वैष्णव अर्थात् सदा गुण ग्राहक”

आज बापदादा माला बना रहे थे। कौन सी माला? हरेक श्रेष्ठ आत्मा के श्रेष्ठ गुण की माला बना रहे थे - क्योंकि बापदादा जानते हैं कि श्रेष्ठ बाप के हरेक श्रेष्ठ बच्चे की अपनी-अपनी विशेषता है। अपने-अपने गुण के आधार से संगमयुग में श्रेष्ठ प्रालब्ध पा रहे हैं। बापदादा आज विशेष प्यादे ग्रुप के गुणों को देख रहे थे। चाहे पुरुषार्थ में लास्ट ग्रुप कहा जायेगा लेकिन उन्हों में भी विशेष गुण जरूर है और वही विशेष गुण उन आत्माओं को बाप का बनने में विशेष आधार है। तो बापदादा पहले नम्बर में लास्ट नम्बर तक नहीं गये। लेकिन लास्ट से फर्स्ट तक गुण देखा। बिल्कुल लास्ट नम्बर में भी गुणवान थे। परमात्म-सन्तान और कोई गुण न हो, यह हो नहीं सकता। उसी गुण के आधार से ही ब्राह्मण जन्म में जी रहे हैं अर्थात् जिन्दा हैं। ड्रामा अनुसार उसी गुण ने ही ऊंचे ते ऊंचे बाप का बच्चा बनाया है। उसी गुण के कारण ही प्रभु पसन्द बने हैं, इसलिए गुणों की माला बना रहे थे। ऐसे ही हर ब्राह्मण आत्मा के गुण को देखने से श्रेष्ठ आत्मा का भाव सहज और स्वत: ही होगा क्योंकि गुण का आधार है ही श्रेष्ठ आत्मा। कई आत्मायें गुण को जानते हुए भी जन्म-जन्म की गन्दगी को देखने के अभ्यासी होने कारण गुण को न देख अवगुण ही देखती हैं। लेकिन अवगुण को देखना, अवगुण को धारण करना ऐसी ही भूल है जैसे स्थूल में अशुद्ध भोजन पान करना। स्थूल भोजन में अगर कोई अशुद्ध भोजन स्वीकार करता है तो भूल महसूस करते हो ना। लिखते हो ना कि खान-पान की धारणा में कमजोर हूँ। तो भूल समझते हो ना! ऐसे अगर किसी का अवगुण अथवा कमजोरी स्वयं में धारण करते हो तो समझो अशुद्ध भोजन खाने वाले हो। सच्चे वैष्णव नहीं, विष्णु वंशी नहीं, लेकिन राम की सेना हो जायेंगे इसलिए सदा गुण ग्रहण करने वाले गुण मूर्त बनो।

बापदादा आज बच्चों की चतुराई के खेल देख रहे थे। याद आ रहे हैं ना - अपने खेल! सबसे बड़ी बात दूसरे के अवगुण को देखना, जानना इसको बहुत होशियारी समझते हैं, इसको ही नॉलेजफुल समझ लेते हैं। लेकिन जानना अर्थात् बदलना। अगर जाना भी, दो घड़ी के लिए नॉलेजफुल भी बन गये, लेकिन नॉलेजफुल बनकर क्या किया? नॉलेज को लाइट और माइट कहा जाता है, जान तो लिया कि यह अवगुण है लेकिन नॉलेज की शक्ति से अपने वा दूसरे के अवगुण को भस्म किया? परिवर्तन किया? बदल के वा बदला के दिखाया वा बदला लिया? अगर नॉलेज की लाइट माइट को कार्य में नहीं लाया तो क्या उसको जानना कहेंगे, नॉलेजफुल कहेंगे? सिवाए नॉलेज के लाइट माइट को यूज़ करने के वह जानना ऐसे ही है जैसे द्वापरयुगी शास्त्रवादियों को शास्त्रों की नॉलेज है। ऐसे जानने वाले से अवगुण को न जानने वाले बहुत अच्छे हैं। ब्राह्मण परिवार में आपस में ऐसी आत्माओं को हंसी में बुद्धू समझ लेते हैं। आपस में कहते हो ना कि तुम तो बुद्धू हो, कुछ जानते नहीं हो। लेकिन इस बात में बुद्धू बनना अच्छा है। ना अवगुण देखेंगे, न धारण करेंगे, न वाणी द्वारा वर्णन कर परचिन्तन करने की लिस्ट में आयेंगे। अवगुण तो किचड़ा है ना। अगर देखते भी हो तो मास्टर ज्ञान सूर्य बन किचड़े को जलाने की शक्ति है, तो शुभ-चिन्तक बनो। बुद्धि में ज़रा भी किचड़ा होगा तो शुद्ध बाप की याद टिक नहीं सकेगी। प्राप्ति कर नहीं सकेंगे। गन्दगी को धारण करने की एक बार आदत डाल दी तो बार-बार बुद्धि गन्दगी की तरफ न चाहते भी जाती रहेगी। और रिजल्ट क्या होगी? वह नैचुरल संस्कार बन जायेंगे। फिर उन संस्कारों को परिवर्तन करने में मेहनत और समय लग जाता है। दूसरे का अवगुण वर्णन करना अर्थात् स्वयं भी परचिन्तन के अवगुण के वशीभूत होना है। लेकिन यह समझते नहीं हो - दूसरे की कमजोरी वर्णन करना, अपने समाने की शक्ति की कमजोरी जाहिर करना है। किसी भी आत्मा को सदा गुण-मूर्त से देखो। अगर किसकी कोई कमजोरी है भी, मर्यादा के विपरीत कार्य है भी तो बापदादा की निमित्त बनाई हुई सुप्रीम कोर्ट में लाओ। खुद ही वकील और जज नहीं बन जाओ। भाई-भाई का नाता भूल वकील जज बन जाते हो इसलिए भाई-भाई की दृष्टि टिक नहीं सकती। केस दाखिल करने की मना नहीं है लेकिन मिलावट और खयानत नहीं करो। जितना हो सके शुभ भावना से इशारा दे दो। न अपने मन में रखो और न औरों को मनमनाभव होने में विघ्न रुप बनो। तो चतुराई का खेल क्या करते हैं? जिस बात को समाना चाहिए उसको फैलाते हैं और जिस बात को फैलाना चाहिए उसको समा देते हैं कि यह तो सबमें है। तो सदा स्वयं को अशुद्धि से दूर रखो। मंसा में, चाहे वाणी में, कर्म में वा सम्बन्ध-सम्पर्क में अशुद्धि, संगमयुग की श्रेष्ठ प्राप्ति से वंचित बना देगी। समय बीत जायेगा। फिर “पाना था” इस लिस्ट में खड़ा होना पड़ेगा। प्राप्ति स्वरूप की लिस्ट में नहीं होंगे। सर्व खजानों के मालिक के बालक और अप्राप्ति वालों की लिस्ट में हों, यह अच्छा लगेगा? इसलिए अपनी प्राप्ति में लग जाओ। शुभचिंतक बनो। किसी भी प्रकार के विकारों के वशीभूत हो अपनी उल्टी होशियारी नहीं दिखाओ। यह उल्टी होशियारी अब अल्पकाल के लिए अपने को खुश कर लेगी वा ऐसे साथी भी आपकी होशियारी के गीत गाते रहेंगे लेकिन कर्म की गति को भी स्मृति में रखो। उल्टी होशियारी उल्टा लटकायेगी। अभी अल्काल के लिए काम चलाने की होशियारी दिखायेंगे, इतना ही चलाने के बजाए चिल्लाना भी पड़ेगा। कई ऐसी होशियारी दिखाते हैं कि बापदादा दीदी दादी को भी चला लेंगे। यह सब तरीके आते हैं। अल्पकाल की उल्टी प्राप्ति के लिए मना भी लिया, चला भी लिया लेकिन पाया क्या और गंवाया क्या। दो तीन वर्ष नाम भी पा लिया लेकिन अनेक जन्मों के लिए श्रेष्ठ पद से नाम गंवा लिया। तो पाना हुआ या गंवाना हुआ?

और चतुराई सुनावें? ऐसे समय पर फिर ज्ञान की प्वाइन्ट यूज़ करते हैं कि अभी प्रत्यक्ष फल तो पा लो भविष्य में देखा जायेगा। लेकिन प्रत्यक्षफल अतीन्द्रिय सुख सदा का है, अल्पकाल का नहीं। कितना भी प्रत्यक्षफल खाने का चैलेन्ज करे लेकिन अल्पकाल के नाम से और खुशी के साथ-साथ बीच में असन्तुष्टता का कांटा फल के साथ जरूर खाते रहेंगे। मन की प्रसन्नता वा सन्तुष्टता अनुभव नहीं कर सकेंगे इसलिए ऐसे गिरती कला की कलाबाजी नहीं करो। बापदादा को ऐसी आत्माओं पर तरस होता है - बनने क्या आये और बन क्या रहे हैं! सदा यह लक्ष्य रखो कि जो कर्म कर रहा हूँ, यह प्रभु पसन्द कर्म है? बाप ने अपको पसन्द किया तो बच्चों का काम है हर कर्म बाप पसन्द, प्रभु पसन्द करना। जैसे बाप गुण मालायें गले में पहनाते हैं वैसे गुण माला पहनो, कंकड़ो की माला नहीं पहनो। रत्नों की पहनो। अच्छा-

ऐसे सदा गुण मूर्त सदा प्रभु पसन्द, सदा सच्चे वैष्णव, विष्णु के राज्य अधिकारी, सदा शुभ भावना द्वारा भाई-भाई की दृष्टि में सहज स्थित होने वाले, सदा गुण ग्राहक दृष्टि वाले, ऐसे सदा बाप के समान बनने वाले, समीप रत्नों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों के साथ
1. ऊंचे ते ऊंचे बाप के बच्चे, मिट्टी में खेलने के बजाए अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलो -
सदा अपने को सर्व प्राप्ति स्वरूप अनुभव करते हो? प्राप्ति स्वरूप अर्थात् अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलने वाले। सदा एक बाप दूसरा न कोई... ऐसे साथ का अनुभव करेंगे। जब बाप सर्व सम्बन्धों से अपना बन गया तो सदा बाप का साथ चाहिए ना। कितनी भी बड़ी परिस्थिति हो, पहाड़ हो लेकिन आप बाप के साथ-साथ ऊपर उड़ते रहो तो कभी भी रूकेंगे नहीं। जैसे प्लेन को पहाड़ नहीं रोक सकते, पहाड़ पर चढ़ने वालों को बहुत मेहनत करनी पड़ती लेकिन उड़ने वाले उसे सहज ही पार कर लेते हैं। ऐसे कैसी भी बड़ी परिस्थिति हो, बाप के साथ उड़ते रहो तो सेकण्ड में पार हो जायेंगे। कभी भी झूले से नीचे नहीं आओ, नहीं तो मैले हो जायेंगे। मैले, फिर बाप से कैसे मिल सकते। बहुतकाल अलग रहे अभी मेला हुआ तो मेला मनाने वाले मैले कैसे होंगे। बापदादा हर एक बच्चे को कुल का दीपक, नम्बरवन बच्चा देखना चाहते हैं। अगर बार-बार मैले होंगे तो स्वच्छ होने में कितना टाइम वेस्ट होगा इसलिए सदा मेले में रहो। मिट्टी में पांव क्यों रखते हो! इतने श्रेष्ठ बाप के बच्चे और मैले, तो कौन मानेगा कि यह उस ऊंचे बाप के बच्चे हैं इसलिए बीती सो बीती। जो दूसरे सेकण्ड बीता वह समाप्त। कोई भी प्रकार की उलझन में नहीं आओ। स्वचिन्तन करो, परचिन्तन न सुनो, न करो, यही मैला करता है। अभी से क्वेश्चन मार्क समाप्त कर बिन्दी लगा दो। बिन्दी बन बिन्दी बाप के साथ उड़ जाओ। अच्छा!

2. फुर्सत में रहने वाली आत्माओं की सेवा भी फुर्सत से करो तो सफलता मिलेगी:
वानप्रस्थी जिन्हों को सदा फुर्सत है, जो रिटायर्ड हैं, उनकी सेवा के लिए थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी - वे सिर्फ कार्ड बांटने से नहीं आयेंगे। फुर्सत वालों की सेवा भी फुर्सत अर्थात् समय देकर करनी पड़ेगी क्योंकि वे अपने को वानप्रस्थी होने के कारण अनुभवी समझते हैं। उन्हें अनुभव का अभिमान होता है इसलिए उनकी सेवा के लिए थोड़ा ज्यादा समय देना पड़े और तरीका भी मित्रता का, स्नेह मिलन का हो। समझाने का नहीं। मित्रता के नाते से उन्हों को मिलो। ऐसे नहीं सुनाओ कि यह बात आप नहीं जानते हो, मैं जानता हूँ। अनुभव की लेन-देन करो। उनकी बात को सुनो तो समझेंगे यह हमें रिगार्ड देते हैं। किसी को भी समीप लाने के लिए उनकी विशेषता का वर्णन करो फिर उन्हें अपना अनुभव सुनाकर समीप ले आओ। अगर कहेंगे कोर्स करो, ज्ञान सुनो तो नहीं सुनेंगे इसलिए अनुभव सुनाओ। बापदादा को अभी ऐसे वानप्रस्थियों का गुलदस्ता भेंट करो। उन्हें मित्रता के नाते से सहयोगी बनाकर बुलाओ।

3- निर्मान बनो तो नव निर्माण का कर्तव्य आगे बढ़ता रहेगा:
सदा अपने को सेवा के निमित्त बने हुए सेवा का श्रृंगार समझकर चलते हो? सेवाधारी की मुख्य विशेषता कौन-सी है? सेवाधारी अर्थात् निर्माण करने वाले सदा निर्मान। निर्माण करने वाले और निर्मान रहने वाले। निर्मानता ही सेवा की सफलता का साधन है। निर्माण बनने से सदा सेवा में हल्के रहेंगे। निर्मान नहीं, मान की इच्छा है तो बोझ हो जायेगा। बोझ वाला सदा रूकेगा। तीव्र नहीं जा सकता इसलिए निर्मान हैं या नहीं हैं उसकी निशानी हल्का होगा। अगर कोई भी बोझ अनुभव होता है तो समझो निर्मान नहीं हैं।

4- सच्चे रूहानी सेवाधारी अर्थात् सर्व सम्बन्धों की अनुभूति एक बाप से करने और कराने वाले:
सर्व सम्बन्ध एक बाप से हैं, बाप सदा सम्मुख में हाज़िर-नाज़िर हैं, ऐसा अनुभव होता है? तुम्हीं से खाऊं, तुम्हीं से बैठूं, तुम्हीं से सुनूं... इसका अनुभव होता है ना? बाप ही सच्चा मित्र बन गया तो औरों को मित्र बनाने की जरूरत ही नहीं। जो सम्बन्ध चाहिए उस सम्बन्ध से बापदादा सदा सम्मुख में हाज़िर-नाज़िर हैं। तो शिक्षक अर्थात् सर्व सम्बन्धों का रस एक बाप से अनुभव करने वाली। इसको कहा जाता है सच्चे सेवाधारी। स्वयं में होगा तो औरों को भी अनुभूति करा सकेंगी। अगर निमित्त बनी हुई आत्माओं में कोई भी रसना की कमी है तो आने वाली आत्माओं में भी वह कमी रह जायेगी। तो सर्व रसनाओं का अनुभव करो और कराओ। अच्छा। ओम् शान्ति।
वरदान:

ज्ञान खजाने द्वारा मुक्ति-जीवनमुक्ति का अनुभव करने वाले सर्व बंधनमुक्त भव

ज्ञान रत्नों का खजाना सबसे श्रेष्ठ खजाना है, इस खजाने द्वारा इस समय ही मुक्ति-जीवनमुक्ति की अनुभूति कर सकते हो। ज्ञानी तू आत्मा वह है जो दु:ख और अशान्ति के सब कारण समाप्त कर, अनेकानेक बन्धनों की रस्सियों को काटकर मुक्ति वा जीवनमुक्ति का अनुभव करे। अनेक व्यर्थ संकल्पों से, विकल्पों से और विकर्मो से सदा मुक्त रहना - यही मुक्त और जीवनमुक्त अवस्था है।

स्लोगन:

विश्व परिवर्तक वह है जो अपनी शक्तिशाली वृत्तियों से वायुमण्डल को परिवर्तन कर दे।

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