परिवार के तीनों बेटे , बहू और बच्चे बैठे हुए थे। पिता ने ही बुलाया था सबको। सुबह ही सब जब काम पर और बच्चे स्कूल चले गए थे तब मझली बहू और सास की कहा -सुनी हो गई थी।
"बच्चों , आप जानते हो कि मैंने तुम्हें यहाँ क्यों बुलाया है। आज शाम का ही खाना सब साथ खाएंगे। कल ही अपना-अपना इंतजाम कर लो घर को छोड़ दो। " पिता ने बहुत भारी मन से कहा।
"नहीं , आपको ऐसे छोड़कर कैसे जा सकते हैं ? जिसने गलती की है उसकी सजा हमें क्यों मिले ?" बड़ा बेटा बोला था।
"हाँ , भैया सही कह रहे हैं। मैं सबसे छोटा हूँ और माँ के बिना मेरा रहना संभव नहीं। आखिर मेरी गलती क्या है ?" छोटे बेटे ने कहा था। माँ चुपचाप सब सुन रही थी।
"ठीक है , तू माँ के साथ रह ले , मैं पिताजी को साथ रख लूँगा। जब मन करे तू आ जाना , पिताजी से मिलने। " बड़ा बेटा फिर बोला था। इस बार माँ के होंठ कुछ बुदबुदाए थे। पिता ने माँ की और देखा और बोला - " कोई कहीं जाए मगर जानकी मेरे साथ रहेगी। हम दोनों मर जाएंगे तो तीनों बाँट लेना इस घर को। यही चाहिए तुम्हे। मेरी पत्नी मेरे साथ आई थी मेरे साथ ही रहेगी और मैं ये बर्दाश्त नहीं कर सकता कि घर में कोई क्लेश हो। अब तुम बड़े हो गए हो , अब घोंसला छोड़ ही देना चाहिए तुम्हें. तुम्हें रोक-टोक पसंद नहीं है , रहो आजाद और अपनी तरह से। यही तो ज़माना है। मगर हम तुम्हारे लिए बोझ बनकर नहीं जीना चाहते। " पिता बोले थे।
"मैं कहीं नहीं जाउंगी। यहीं रहूंगी। माँ से खूब लड़ूंगी भी। मेरी माँ नहीं है तो मुझे कौन सिखाता। मुझे नहीं आता अकेले रहना। अगर बाहर निकालेंगे तो मैं इनके भी साथ नहीं रहूंगी। बिन माँ की बेटी हूँ मैं तो पिता जी आप इतने कठोर हो जाएंगे ? मुझे डांटिए , मारिये , मैंने गलती की है। मेरी गलती की सजा सबको क्यों ? "और वह माँ के पैरों पर लोट गई।
कुछ देर मौन छाया रहा। बहू की आँखें रोने से लाल हो चुकी थीं। वह माँ की गोद में अपना सर घुसाए रो रही थी। पिता जी ने इशारा किया। माँ का हाथ बहू के सर पर आ गया था।
"ठीक है , ये बिन माँ की है , इसकी गलती समझ आती है पर बहुओं को अपना फ़र्ज़ निभाना चाहिए था। माँ का अपमान हुआ क्यों ? क्या इसको समझाया नहीं जा सकता था ? तुम बराबर की गुनाहगार हो। तुम्हें सजा मिलनी चाहिए नालायक भी , जो हमें अलग करने चले थे। " पिता बोले थे।
सभी दौड़ पड़े थे माँ की तरफ। बाहों में भर लिया था माँ को।
"मैं तुम्हारे पिता की बात को काट नहीं सकती। उन्ही से कहो जो कहना है। " माँ ने गेंद पिता के पाले में फेंक दी थी। सब माँ को साथ लिए खड़े हो गए थे सिर झुकाये पिता के सामने।
"कुछ कहिये न। "
"मैं जा रहा हूँ पार्क में। सुबह का खाना तुम्हारे साथ ये मझली बनाएगी। इसे खूब सा प्यार देती रहो। इसकी सजा इतनी ही है। अगली बार गलती बर्दाश्त नहीं होगी।" और पिता बाहर निकल गए थे।
"रुको मैं भी आती हूँ। ठोकर खा बैठोगे गुस्से में। " माँ ने आवाज दी थी।
"नहीं माँ , पिता जी गुस्सा पालना जानते हैं। उन्होंने हमारे अभिमान को ठोकर मार दी है। " बेटे एक स्वर में बोल पड़े थे।
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