*" करना कब पूरा होगा?—आप लोग ध्यान देकर सुनें, बहुत बढ़िया बात है। "*_
_*' करना तब पूरा होगा, जब अपने लिये कुछ नहीं करेंगे। '* अपने लिये करनेसे करना कभी पूरा होगा ही नहीं, सम्भव ही नहीं। कारण कि करनेका आरम्भ और समाप्ति होती है और आप वही रहते हैं। अतः अपने लिये करनेसे करना बाकी रहेगा ही। करना बाकी कब नहीं रहेगा? *जब अपने लिये न करके दूसरोंके लिये ही करेंगे।*_
_घरमें रहना है तो घरवालोंकी प्रसन्नताके लिये रहना है। अपने लिये घरमें नहीं रहना है। समाजमें रहना है तो समाजवालोंके लिये रहना है, अपने लिये नहीं। माँ है तो माँके लिये मैं हूँ, मेरे लिये माँ नहीं। माँकी सेवा करनेके लिये, माँकी प्रसन्नताके लिये मैं हूँ; इसलिये नहीं कि माँ मेरेको रुपया दे दे, गहना दे दे, पूँजी दे दे। *यहाँ से आप शुरू करो*।_
_स्त्रीके लिये मैं हूँ, मेरे लिये स्त्री नहीं। मेरे को स्त्री से कोई मतलब नहीं। उसके पालन-पोषणके लिये, गहने-कपड़ोंके लिये, उसके हित के लिये, उसके सुखके लिये ही मेरेको रहना है। मेरे लिये स्त्रीकी जरूरत नहीं। बेटोंके लिये ही मैं हूँ, मेरे लिये बेटे नहीं।_
_इस तरह अपने लिये कुछ करना नहीं होगा, तब कृतकृत्य हो जाओगे। परन्तु यदि अपने लिये धन भी चाहिये, अपने लिये माँ-बाप चाहिये, अपने लिये स्त्री चाहिये, अपने लिये भाई चाहिये तो अनन्त जन्मोंतक करना पूरा नहीं होगा। अपने लिये करनेवाले का करना कभी पूरा होता ही नहीं, होगा ही नहीं, हुआ ही नहीं, हो सकता ही नहीं। इसमें आप सबका अनुभव बताता हूँ।_
_*एक साधुकी बात सुनी। कुछ साधु बद्रीनारायण गये थे।* वहाँ एक साधुकी अँगुलीमें पीड़ा हो गयी, तो किसीने कहा कि आप पीड़ा भोगते हो, यहाँ अस्पताल है, सबका मुफ्तमें इलाज होता है। आप जा करके पट्टी बँधवा लो। उस साधुने उत्तर दिया कि *यह पीड़ा तो मैं भोग लूँगा, पर मैं किसीको पट्टी बाँधनेके लिये कहूँ—यह पीड़ा मैं नहीं सह सकूँगा!* ऐसे त्याग का उदाहरण भी मेरेको यह एक ही मिला, और कोई उदाहरण नहीं मिला मेरेको।_
_मेरेको यह बात इतनी बढ़िया लगी कि वास्तवमें यही *साधुपना है, यही मनुष्यपना है।* जैसे कुत्ता टुकड़ेके लिये फिरे, ऐसे जगह-जगह फिरनेवालेमें मनुष्यपना ही नहीं है, साधुपना तो दूर रहा।_
_सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका) गृहस्थी थे, पर वे भी कहते कि *भजन करना हो तो मनसे पूछे कि कुछ चाहिये?* तो कहे कि कुछ नहीं चाहिये। ऐसा कहकर फिर भजन करे। जब गृहस्थाश्रममें रहनेवाले भी यह बात कह रहे हैं, तो फिर साधुको क्या चाहिये?_
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_*" हमारे लिये कुछ चाहिये यही मरण है "*।_
_*करना* तो *दूसरोंके लिये* है और *जानना खुदको* है। खुदको जान जाओ तो जानना बाकी नहीं रहेगा। खुदको नहीं जानोगे तो कितनी ही विद्याएँ पढ़ लो, कितनी ही लिपियाँ पढ़ लो, कितनी ही भाषाओंका ज्ञान कर लो, कितने ही शास्त्रोंका ज्ञान कर लो, पर जानना बाकी ही रहेगा।_
_स्वयंको साक्षात् कर लिया, *स्वरूपका बोध हो गया*, तो फिर जानना बाकी नहीं रहेगा। *ऐसे ही परमात्माकी प्राप्ति हो गयी*, तो फिर कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं रहेगा।_
_*दूसरोंके लिये करना, स्वरूपको जानना और परमात्माको पाना*—इन तीनोंके सिवा आप कुछ नहीं कर सकते, कुछ नहीं जान सकते और कुछ नहीं पा सकते। कारण कि इन तीनोंके सिवा आप कुछ भी करोगे, कुछ भी जानोगे और कुछ भी पाओगे, तो वह सदा आपके साथ नहीं रहेगा और न आप उसके साथ सदा रहोगे। जो सदा साथ न रहे, उसको करना, जानना और पाना केवल वहम ही है।_
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